लॉकडाउन के साथ, देश के वजीरे आजम मोदी का फैसला हमेशा देश हित में ही होगा - साहिल खान डायर

कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों और कुछ लोगों की लापरवाही की वजह से भारत में और 19 दिनों के लिए लॉकडाउन का बढ़ना न केवल स्वाभाविक, बल्कि स्वागतयोग्य ही कहा जाएगा। जब लॉकडाउन लागू हुआ था, तब देश में 550 मामले थे, अब 10,000 से ज्यादा हो गए हैं। मंगलवार को प्रधानमंत्री के संबोधन से पहले ही तय माना जा रहा था कि विशाल आबादी के संरक्षण के लिए लॉकडाउन से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। दुनिया के ज्यादातर देशों में लॉकडाउन है। हाल ही में फ्रांस ने भी लॉकडाउन बढ़ाया है और ब्रिटेन भी बढ़ाएगा। यूरोप में केवल ऑस्ट्रिया है, जो आर्थिक वजहों से लॉकडाउन में कुछ ढील देने को मजबूर हुआ हैै। अमेरिका में भी कुछ ढील के साथ लॉकडाउन जारी रखने की मजबूरी चर्चा में है। दुनिया में एक ओर, लॉकडाउन जरूरी है, तो दूसरी ओर, लॉकडाउन की वजह से डगमगाती आर्थिक स्थिति भी सभी को विचलित कर रही है। अत: भारतीय प्रधानमंत्री ने जिस तरह से रोज कमाने-खाने वाले वर्ग के प्रति चिंता जाहिर की है, वह उल्लेखनीय है। यही वह मोर्चा है, जहां जीतना जितना कठिन, उतना ही जरूरी होगा। भारत वैसे ही गरीबों का देश है और ऊपर से यह महामारी गरीबी में आटा गीला कर रही है। लॉकडाउन से सबसे ज्यादा चोट खाए इस वर्ग को कहीं पर भोजन, तो कुछ राज्यों में औसतन 1,000 रुपये तक मिल रहे हैं। कोई दो-राय नहीं, यह मदद भी समान रूप से सभी जरूरतमंदों को नसीब नहीं हो रही होगी।
आज देश की सबसे बड़ी चुनौती है कि जो आर्थिक चोट लग चुकी है, उसका अनुमान किसी को नहीं है, भविष्य में चोट का आकार क्या होगा, कहना कठिन है। अमेरिका जैसे देश के लिए आसान है, क्योंकि वहां जिन लोगों पर अभाव की मार पड़ी है, उनके पूरे आंकडे़ सरकार के पास हैं। पूरी व्यवस्था है, स्वयं लोगों ने आगे आकर सरकार को बताया है कि उन्हें मदद चाहिए। बेरोजगार हुए और मदद मांग रहे लोगों की संख्या अमेरिका में 1.67 करोड़ तक पहुंच गई है। अमेरिका जैसे विकसित देश में 5.5 प्रतिशत से ज्यादा लोग बेरोजगार होकर यदि सरकार से गुहार लगा रहे हैं, तो भारत जैसे विकासशील देश में कितने लोग प्रार्थना की मुद्रा में होंगे, इसका अनुमान हमारी सरकार को अवश्य लगा लेना चाहिए। ऐसे प्राथमिक जरूरतमंदों के अलावा भी भारत में एक बड़ी आबादी है, जो चाहती है कि उसके दुख को भी गिना जाए। बेशक हम अमेरिका से बराबरी नहीं कर सकते, जहां जरूरतमंद बच्चों के नाम से ही 500 डॉलर दिए जा रहे हैं। हमें भी सोचना चाहिए कि ऐसे गाढ़े समय में जरूरतमंदों के लिए हम अधिकतम क्या कर सकते हैं।
इसके अलावा अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए भी हमें दूसरे कुछ देशों से सीखना चाहिए। अमेरिका, फ्रांस से ऑस्ट्रिया तक कंपनियों को दी जा रही आर्थिक मदद ज्यादा है, लेकिन हमें देखना चाहिए कि हमारी सरकारें अधिकतम कितनी मदद कर सकती हैं। ऑस्ट्रेलिया में लागू हुई वेतन-सब्सिडी योजना के तहत कर्मचारियों को बनाए रखने के लिए नियोक्ताओं को भुगतान किया जा रहा है। कनाडा, चेक रिपब्लिक, आयरलैंड ने भी कमोबेश ऐसा ही किया है। इटली में स्वरोजगार भत्ते का भुगतान हो रहा है। बेशक, आज दूसरे देशों से अच्छे उपाय सीखने की जरूरत और बढ़ गई है, ताकि भारत न सिर्फ सेहत के मोर्चे पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी विजेता बनकर उभरे।
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