मृत्यु भोज एक सामाजिक अभिशाप
इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक कुरीति अपने समाज में फैलाई गई वह हैं - मृत्युभोज।।
जिस भोजन को रोते हुए बनाया जाता है, उस भोजन को खाने के लिए रोते हुए बुलाया जाता है, जिस भोजन को आंसू बहाते हुए खाया जाता है उस भोजन को मृत्यु भोज कहा जाता है। यह कैसा मृत्यु भोज?? हालात पर नजर डाले तो आज वाकई में यह बड़ी बुराई बन चुका है। अपनों को खोने का दर्द है ऊपर से तेहरवी का भारी भरकम खर्च? मानव विकास के रास्ते में यह कुरीति कैसे फैल गई समझ से परे है। जानवर भी किसी अपने साथी के चले जाने पर सब मिलकर वियोग जाहिर करते हैं, परंतु यहां किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-संबंधी भोज करते हैं, मिठाईयां खाते हैं। इस शर्मनाक कुरीति को मानवता की किस श्रेणी में रखे? आसपास के कई गांवों से ट्रैक्टर- ट्रॉलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोजन पर टूट पड़ती है। यहां तक शिक्षित व्यक्ति भी इस जाहिल कार्य में पीछे नहीं रहते पहले परंपरा अलग थी कि संसाधन के अभाव में दूर से आने वालों को भोजन कराना होता था इसे भी तब अतिथि सत्कार नाम दिया था लेकिन वर्तमान समय हालात बदल गए हैं। मृत्यु भोज के लिए 1 से 2 लाख तक का साधारण इंतजाम करने का दर्द, ऐसा ना करो तो समाज में इज्जत ना बचे। क्या गजब पैमाने बनाए है, हमने इज्जत के? कहीं- कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है, इसका खर्च लगभग मृत्युभोज के भोजन के बराबर ही पड़ता है। बड़े-बड़े नेता इस अफीम का आनंद लेकर कानून का खुला मजाक उड़ाते हैं।
बर्बादी का नंगा नाच, जिस देश में चल रहा हों, वहां पर पूंजी कहां बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पड़ेंगे? आप आश्चर्य करेंगे इधर शहीदों तक को नहीं बख्शा जाता हैं। अब सोचिए वह परिवार क्या बालिका शिक्षा की सोचेगा जो ऐसी कुरीतियों के कारण कर्जे में डूब गया है फिर वो मजबूरी में बाल विवाह करता है।
यह कोरोना काल में लॉकडाउन अच्छा है- छूट रहा है एक कुप्रथा से साथ तो क्यों न मृत्यु भोज सदा के लिए बंद कर दे। खैर वर्तमान कोरोनाकाल में सरकार ने मृत्यु भोज पर रोक लगा दी है। राजस्थान मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 के तहत किसी की मृत्यु के बाद अगर मृत्यु भोज कराया जाता है तो दोषी को जेल की सजा काटनी पड़ सकती है, मृत्यु भोज की सूचना देना सरपंच और पटवारी का दायित्व है नहीं तो उन पर भी गाज गिर सकती है।
ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भोज का पूर्ण रूप से बहिष्कार कर समाज को एक नई दिशा दें। यह मृत्यु भोज समाज के लिए एक अभिशाप है। अतः हम सब का परम कर्तव्य है कि अधिक से अधिक लोगों को समझाएं और मृत्यु भोज निवारण अधिनियम 1960 का कड़ाई से पालन करवाएं। इस कुरीति को मिटाने हेतु शपथ ले कि इस प्रकार के आयोजन अब कभी नहीं करेगें और ना करने देंगे।
आओ हम सब मिलकर इस कुरीति को जड़ से खत्म करें।
सोच बदले, समाज बदले, हम सुधरेंगे तो समाज सुधरेगा।
पत्रकार
पदमाराम R मोदरान
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