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मोदरान आशापुरी महोदरी माताजी करती है भक्तो की आशा पुरी, ये कदम्ब के पेड़

 मोदरान आशापुरी महोदरी माताजी करती है भक्तो की आशा पुरी



जगमाल सिंह राजपुरोहित मोदरान।

मोदरान। जालोर जिले के मोदरान कस्बे  का श्री आशापुरी महोदरी  माताजी का मंदिर अपनी विशिष्ट पहचान के लिए जन-जन में आस्था और विश्वास का प्रतीक बनता जा रहा है। पवित्र धाम के पर विराजित मां आशापुरी की मोहक प्रतिमा हर भक्तों की आशा पूरी करती है। यह मंदिर सभी जातियों, धर्मों, समुदाय के लोगों में लोकप्रिय  बनता जा रहा हैं। यहां प्रतिवर्ष हजारों यात्री देश के विभिन्न क्षेत्रों से मोदरान की श्री आशापुरी माताजी के दर्शन करने आते रहते हैं। 




विशेषकर यहां होली महोत्सव  के तीसरे दिन आयोजित होने वाले वार्षिक  मेले में भाग लेने के लिए अपार जनसमुदाय एकत्रित होता है। 

इस मेले में श्रद्धा व आस्था के साथ विश्वास और साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल देखने को मिलती है। श्री आशापुरी  माताजी के दर्शन करने आने वाले यात्री माताजी से अपनी आशाओ  के साथ जीवन में सुख एवं समृद्धि की मनोकामना करते हुए प्रसाद, सप्त रंगी  चुनरी, नारियल  चढ़ाकर अपने आपको भाग्यशाली समझते हैं।

आशापुरी माताजी  का नाम महोदरी भी कैसे बताया गया है, जिसका वर्णन दुर्गा सप्तशती में भी उल्लेखित है। यह देवी चौहान वंश, भंडारी समाज की कुलदेवी के नाम से पहचानी जाती है। प्राचीन समय मे यह स्थल महोधरा के नाम से परिचायक रहा था।

इस कारण महोदरी माताजी के नाम से भी इस मंदिर की पहचान है।

श्री माँ आशापुरी महोदरी माताजी ने महिषासुर का मर्दन किया था, इस कारण इन्हे महिषासुरमर्दनी के नाम से विशेष रूप से पुकारा जाता है।

 मोदरान माताजी ने जूनागढ़ के राजा खंगार चुड़ासमा की पटरानी शीतल सोलंकणी की पत्नी  की आशा को पूर्ण करने पर उन्होने माँ आशापुरी माताजी के नाम से सम्बोधित करने के पश्चात् जनसमुदाय माताजी को माँ आशापुरी माता के नाम से पूजते  आ रहे है। वैसे भी अब असंख्य लोगों की माताजी की अपार श्रद्धा से अराधना-उपासना के साथ पूजा की और माताजी ने उनकी आशाओं को पूर्ण कर दिया।  यह क्रम निरन्तर बहुसंख्या में आज भी जारी है। मोदरा माताजी का गांव का उच्चारण करते ही लो समझ जाते है कि यह मोदरान ही है जहां बडे शिखर वाला भव्य मन्दिर बना हुआ है।




आशापुरी देवी - आशा पूर्ण करने वाली देवी को आशापुरी या आशा पुरा देवी कहते हैं।

जालोर  जिले के चौहान शासकों की कुलदेवी आशापुरी देवी थी जिसका मंदिर जालोर जिले के मोदरान माता अर्थात बड़े उदर वाली महोदरी माता के नाम से विख्यात है। चौहानों के अतिरिक्त कई जातियों के लोग तथा जाटों में बुरड़क गोत्र इसे अपनी कुल देवी मानते हैं। (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता-राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष 2008, राजस्थानी ग्रंधागार जोधपुर, पृ. 476)

आशापुरी माताजी का मंदिर राजस्थान के नाडोल गांव में आशापुरा  तीर्थ के नाम से भी स्थित है।

मंदिर परिसर में खड़े दर्जनों कदम्ब वृक्ष आज भी अपनी छटा से माहौल को सुरभित किए हुए हैं। ये दुर्लभ वृक्ष देशभर में संरक्षिक है। ऐसा कहा जाता है कि रानी शीतल सोलंकणी के प्रवास के समय जिन हूंठों (खुट्टो) से घोड़े बांधे गए थे वे माताजी के आशीर्वाद से वृक्ष का रूप बन गए। वे वृक्ष माताजी के आशीर्वाद को कदम्ब के वृक्ष आज भी मंदिर परिसर में खड़े  है वे दर्जनों कदम्ब वृक्ष आज भी अपनी छटा से माहौल को सुरभित किए हुए हैं। ये दुर्लभ वृक्ष देशभर में संरक्षित है। ऐसा कहा जाता है कि रानी शीतल सोलंकणी के प्रवास के समय जिन हूंठों से घोड़े बांधे गए थे वे माताजी के आशीर्वाद से वृक्ष का रूप बन गए। वे वृक्ष माताजी के आशीर्वाद को भली भांति फलीभूत करते हुए मंदिर परिसर में दिव्य छटा बिखेरते हैं।

ये कदम्ब के पेड़

जब ब्रज की कुंज गलियन में अठखेलियां करने वाला कान्हा कभी कदम्ब की सघन छांव में आंखें बंद करके बांसुरी की तान छेड़ता तो प्रकृति भी सम्मोहित हो उठती थी। कदम्ब के वृक्ष से कालिया नाग पर छलांग लगाने, गोपियों के वस्त्र चुराने की घटना हो या सुदामा के साथ चने खाने का वाकया ।

 द्वापर के जमाने में कृष्ण का साथी रहा कदम्ब का वृक्ष आज  जिला प्रशासन व मोदरान ग्राम पंचायत की उपेक्षा का शिकार हो चला है।

कभी मोदरान के आशापुरी माताजी मंदिर प्रांगण में कदम्ब के दर्जनों वृक्ष हुआ करते थे, लेकिन अब इन वृक्षों की सुध लेने वाला कोई नहीं है । ऐतिहासिक महत्व के इन वृक्षों के प्रति क्षेत्र के लोगों की अपार आस्था है। बड़े-बूढ़ों के मुताबिक एक जमाना था जब यहां रमणियां श्रावणी तीज पर उन पर झूले डालकर ऊंची पींगे बढ़ाती थीं। 

अमावस्या, पूनम, एकादशी और चौथ समेत कई तिथियों पर यहां आसपास के गावों की ग्रामीण क्षैत्र की महिलाएं अब भी इन वृक्षों का पूजन करके वस्त्र आदि चढ़ाती है।

पुर्व मे यहां श्री 1008 पीर शांतिनाथजी महाराज के चातुर्मास के दौरान यहां कदम्ब घाट का निर्माण भी करवाया गया,  लेकिन प्रशासनिक स्तर पर इस ऐतिहासिक स्थल के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए प्रयासों की नितान्त आवश्यकता है।

इसलिए हरा-भरा रहता है कदम्ब एक पौराणिक कथा के मुताबिक स्वर्ग से अमृत पीकर लौट रहे विष्णु के वाहन गरुड़ की चोंच से कुछ बूंदे कदम्ब के वृक्ष पर गिर गई थी। इस कारण यह अमृत तुल्य माना जाता है। श्रावण मास में आने वाले इसके फूलों का भी विशेष महत्व है।

इसलिए भी है विशिष्ट

29 नक्षत्रों में से शत भिषा नक्षत्र का वृक्ष कदम्ब कामदेव को प्रिय माना जाता है। इसके अलावा भगवान विष्णु , देवी पार्वती और काली माताजी  का भी यह प्रिय वृक्ष है। भीनमाल के कवि माघ ने अपने काव्य में इसका वर्णन किया। 

"कादम्बरी" का नाम भी कदम्ब वृक्ष के आधार पर है। इसी तरह भारवि, माघ और भवभूति ने भी अपने काव्य में कदम्ब का विशिष्ट वर्णन किया है। 

वहीं प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने अपने शोध में कदम्ब वृक्ष का उल्लेख किया है।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी लिखा है.

ले देती मुझे बांसुरी तू दो पैसे वाली, 

किसी तरह नीचे हो जाती ये कदम्ब की डाली। 

ये कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीर,

 मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ॥

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