डिंगल काव्य राजस्थानी का प्राण है : डॉ. आईदान सिंह भाटी



डिंगल काव्य राजस्थानी का प्राण है : डॉ. आईदान सिंह भाटी


जोधपुर।  

जेएनवीयू के राजस्थानी विभाग द्वारा ऑनलाईन फेसबुक लाइव पेज पर गुमेज व्याख्यानमाला के तहत राजस्थानी भाषा साहित्य री ओळखांण डिंगल काव्य पर राजस्थानी भाषा के ख्यातनाम कवि आलोचक, साहित्यवेता डॉ. आईदान सिंह भाटी ने कहा कि राजस्थानी भाषा के साहित्य का प्राण तत्व है डिंगल काव्य उन्होंने व्याख्यनमाला में डिंगल काव्य परम्परा पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला,
राजस्थानी विभागाध्यक्ष एवं गुमेज व्याख्यानमाला की संयोजक डॉ. मीनाक्षी बोराणा ने बताया कि  डॉ. आईदान सिंह भाटी ने कहा कि राजस्थानी डिंगल काव्य परम्परा से प्रभावित होकर ही उन्होंने राजस्थानी में लेखन प्रारम्भ किया था। डिंगल के छंदों की जो पहचान और छंदों का प्रभाव उनकी प्रारम्भिक कविताओं में नजर आता है। डिंगल काव्य में रचित पृथ्वीराज रासौ  की स्तुति को उनके गांव में गाने वाले छंदोबद रूप में गाते थे और उसी से ही उन्होंने अपने कवितापाठ में लयात्मकता सिखी है। उन्होंने कहा की राजस्थानी साहित्य में वैलिक्रिसन रूकमणी, सुर्यमल्ल मिश्रण,ईसरदास आदि के दोहे श्रुति परम्परा से वे गांवों में सुनते रहे है। 
डॉ. भाटी ने कहा कि डिंगलकाव्य में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार रचित लेखन सामने आता है। उन्होंने शंकरदान सामौर, बांकीदास  की कविताओं का उदाहरण देकर बताया कि डिंगल काव्य की एक सशक्त और समृद्धशाली परम्परा पर अपनी बात रखते हुए कहा कि 1857 की क्रांति से बहुत पहले 1805 में मारवाड़ के कवि बांकीदास ने अपने काव्य में अंग्रेजो की खिलाफत की और राजस्थान के वीरों को चेतावनी देकर उनमें वीरता का संचार किया। आज जब सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक कट्टरता का माहौल है जबकि उस समय के डिंगल कवि बड़े उदारमना थे। वे भाईचारे की एकता की बात अपने काव्य में करते थे। डिंगल कवियों की आगम सोच थी।
डॉ. भाटी जी ने कहा कि हम केवल डिंगल छंदो को ही डिंगल काव्य मान लेते है, जबकि उस समय के गाये जाने वाले लोग गीत भी पूर्णतया डिंगल प्रभावित थे। उन्होने कुछ लोकगीतों को गा कर बताया। साथ ही कहा कि डिंगल कविता जो पाठ किया जाता है उसमें नाद सौंदर्य का बोध होता है, जो कि रक्त के प्रवाह को बढ़ा देता है। आपने कहा कि डिंगल काव्य में वीरता के साथ-साथ श्रंृगार और भक्ति काव्य भी प्रचुर मात्रा में लिखा गया है, डिंगल काव्य में साहित्य की त्रिवेणी के दर्शन होते है। डिंगल काव्य में राजस्थान प्रदेश की संस्कृति की झलक नजर आती है। 
उन्होने कहा कि राजस्थानी भाषा के आधुनिक साहित्य की प्रारम्भिक कविताओं पर भी डिंगल का प्रभाव पड़ा है। नारायण सिंह भाटी की कृति दुर्गादास पुर्णरूप से डिंगल प्रभावित है। जो कि डिगल काव्य प्ररम्परा का औज लिये हुए है। डिंगल काव्य परम्परा से आज के कवि भी प्रभावित होकर अपनी कविताओं की रचना करते है। 
अंत में उन्होंने अपनी एक प्रसिद्ध डिंगल कविता का पाठ किया जो कि बहुत ही सुंदर कर्णप्रिय था। आईदानसिंह ने अपने व्याख्यन में डिंगल काव्य परम्परा को कही उदाहरणों के साथ बड़े ही सरल सहज तरीके से विस्तार पूर्वक बताया।
इस ऑनलाईन व्याख्यानमाला में साहित्यकर मधु आचार्य आशावादी, डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित, श्री श्याम सुन्दर भारती, श्री भंवरलाल सुथार ,श्री श्रीकांत पारीक, विमला नागला, महेन्द्र सिंह छायण, तरूण दाधीच, नरेश कविया, सीमा राठौड़, राकेश सारण, पुरूषोतम, भवानी सिंह, रणजीतसिंह, इन्द्रदान चारण सहित अनेक शोध छात्र एवं मातृ भाषा प्रेमी मौजूद रहे।
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Reporter Kiran Rajpurohit
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