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प्रकृति प्रकोप
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सृष्टि निर्मात्री,
प्रलयंकारी प्रकृति।
इसमें ही बननी-बिगड़ती
हमारी आकृति।
फिर भी प्रकृति दोहन करती
हमारी मनोवृत्ति।
विनाशकाले होती
हमारी प्रज्ञा विकृति।।
भूल गये हम प्रकृति पूजा।
कर्मकृत्य, पाखण्डवृत्ति
का ढो़ंग दूजा।
मौत खडी़ द्वार पर,
ये कोरोना अजूबा।
ताली-थाली बजाने का क्या है?
तुम्हारा मंसूबा।
सम्भल जा मेरे यार,
घर में जा, सो जा।।
प्रकृति प्रकोप कोरोना कहर में,
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों की
सूनी पडी़ दहलीजे सारी।
गीता, कुरान, बाईबिल जाली।
जैविक जंग लड़ रही दुनिया सारी।
प्रकृति तेरी माया निराली।
जग-जनता को कर दी न्यारी न्यारी।।
पशु-परिन्दों को आजाद कर
कैद कर दी जग-जनता सारी।।
        लेखक 
नरपत परिहार 'विद्रोही'
शैक्षिक योग्यता- M.A. / B.Ed. (हिन्दी साहित्य)
साहित्यिक सम्मान- साहित्य सम्राट सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, साहित्य अंलकार सम्मान (अखिल भारतीय साहित्य परिषद्  द्वारा )
साहित्य चेतना सम्मान (साहित्य संस्था, जोधपुर द्वारा)
कृष्ण कलम सम्मान (कृष्ण कलम मंच, जयपुर द्वारा)
        

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